बुधवार, अप्रैल 20, 2011

गीत


पेंटर ऑन हिज़ वे टू वर्क, विन्सेंट वान गोग 

सब आगे बढ़ जाता है, 
सब पीछे छूट जाता है.
पर हमें आगे बढ़ना है,
समुद्र में से भी राह 
बनाते जाना है. 

मेरे गीतों ने
कीर्ति नहीं चाही कभी
मेरे लिए ये दुनिया बुलबुला ही थी 
हल्का, जादुई, संवेदी  
और मुझे देखना पसंद था 
नीले आकाश में इन बुलबुलों को
कभी धूप से सुनहरे 
कभी पुते-हुए लाल 
हिलते कांपते फूटते 

मैंने कभी कीर्ति नहीं चाही 

राही, और कुछ नहीं, तुम्हारे
पैरों के निशान ही राह हैं
राही, कोई राह नहीं 
चलना ही राह है 

चलना ही राह बन जाता है 
और पीछे मुड़ कर देखने पर 
जो पथ दिखता है तुम्हें , फिर से  
उस पर कोई नहीं चल पाता है  

राही, हर राह छोड़ जाती है 
समुद्र पे अपने निशान...

उस जगह जहाँ कांटे हैं 
कवि का गीत गूंजा था कभी:
राही, कोई राह नहीं  
चलना ही राह है 
धीरे-धीरे  कदम-कदम  

घर से बहुत दूर दम निकला 
कवि का, किसी अनजान देश 
कि धरती पर, 
और जाते-जाते यही थी पुकार:
राही, कोई राह नहीं 
चलना ही राह है 

जब कोयल गा नहीं पाती
जब कवि भटक जाता है, 
प्रार्थना के पंख टूटे होते हैं 
राही, कोई राह नहीं  
चलना ही राह है 
धीरे-धीरे  कदम-कदम  

-- अंतोनियो मचादो


antonio-machado3

अंतोनियो मचादो 20वीं सदी के आरम्भ के स्पेनी कवि थे. उनकी कविताओं मैं जहाँ एक तरफ अंतर्दृष्टि व अन्तरावलोकन दिखाई देता है, वहीँ दूसरी तरफ स्पेन के लोगों का जीवन व मानसिकता झलकती है.

इस कविता का मूल स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवाद ए. एस कलाईन द्वारा किया गया है. 
हिंदी में अनुवाद  -- रीनू तलवाड़