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द इन्नर वाइस, ओग्यूस्त रोदें The Inner Voice, Auguste Rodin |
एक बात बताओ, आजकल हम अपनी आवाज़ क्यों नहीं उठाते,
और जो हो रहा है उस का विरोध क्यों नहीं करते.
क्या तुमने ध्यान दिया है कि इराक के लिए मंसूबे बांधे जा रहे हैं,
और ध्रुवों की बर्फ पिघलती जा रही है.
मैं अपने आप से कहता हूँ : " चलो, आवाज़ उठाओ.
बड़े होने का क्या फायदा अगर तुम्हारे पास आवाज़ ही नहीं है?
पुकारो! देखो कौन जवाब देता है !
ये पुकार और जवाब का खेल है!"
हमें अपने फरिश्तों तक पहुँचने के लिए
बहुत जोर से आवाज़ लगानी होगी
वे बहरे हैं, वे युद्ध के समय,
चुप्पी के भरे मटकों में छुपे बैठे हैं.
क्या हमने इतने युद्धों के लिए हामी भर दी थी
कि हम चुप्पी से छूट नहीं पा रहे?
अगर आवाज़ नहीं उठाएंगे तो दूसरों को
( जो हम स्वयं ही हैं ) घर लूटने देंगे हम.
आखिर कैसे हमने इतने पुकारने वालों को सुना -- नेरुदा,
आख्मतोवा, थोरो , फ्रेडरिक डगलस -- और अब हम
छोटी झाड़ियों में बैठी गौरैया की तरह चुप हैं?
कई विद्वानों ने कहा है कि हमारा जीवन सात ही दिनों का है.
अब हफ्ते का कौन-सा दिन है? क्या गुरूवार हो गया?
जल्दी करो. अभी आवाज़ उठाओ!
रविवार की रात आने ही वाली है.
-- रोबर्ट ब्लाए

इस कविता का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़