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स्टार ऑफ़ द हीरो, निकोलाई ररीह Star of the Hero. Nicholas Roerich |
दिनों से और उनकी मनमौजी चाल से.
मैं चढ़ना चाहती हूँ किसी बूढ़े धूसर पर्वत पर, धीरे-धीरे,
अपना बाकी का जीवन यूँ ही लगाती, अक्सर सुस्ताती,
सोती चीड़ के पेड़ों के तले, या उनके ऊपर, निर्वस्त्र चट्टानों पर.
जिस आकाश का दम हमने बरसों से घोंट रखा है,
सब कुछ माफ़ करते हुए, मैं देखना चाहती हूँ
कि उस में कितने तारे अभी भी बाकी हैं,
और शांत होना चाहती हूँ,
जानने को जो अंतिम बात है, उसे जानना चाहती हूँ.
यह सारी अत्यावश्यकता! धरती इसलिए तो नहीं है!
कितने मौन हैं पेड़, उनकी कविता उन्हीं की होती है,
मैं धीमे-धीमे कदम उठाना चाहती हूँ, और सोच ठीक रखना चाहती हूँ..
दस हज़ार सालों में, शायद, पर्वत का एक टुकड़ा गिर जाएगा.
-- मेरी ओलिवर

इस कविता का हिन्दी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़