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सुर्रेअलिस्टिक लैंडस्केप, डेविड बुर्ल्यूक Surrealistic Landscape, David Burluik |
दिन-भर रंगा है दीवार को मजदूरों ने मगर
सूर्यास्त होते ही रंग उतर जाता है
दिखने लगती है दीवारों की कालिख
घड़ी फिर से बजाने लगती है वह घंटा
जिसके लिए वर्षों में कोई स्थान नहीं है
और राख की चादर में लिपटा रात को
मैं एक साँस में जागता हूँ
यह वह समय होता है जब मृतकों की दाढ़ी बढ़ा करती है
मुझे याद आता है कि मैं गिर रहा हूँ
कि मैं ही हूँ कारण
और यह भी कि एक बाँह वाले बच्चे की
सिमटी आस्तीन की तरह
मेरे शब्द हैं वस्त्र
उसके जो मैं कभी न हो सकूँगा
-- डब्ल्यू एस मर्विन

इस कविता का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़