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द वेव, अलबर्ट बियरशटाड The Wave, Albert Bierstadt |
जलते हुए से, पतझड़ के पत्ते बहुत चाहते हैं हवा को,
उसकी उत्तेजित साँसों को,
और द्रुत लय में घूमते पहुँच जाते हैं अपनी मृत्यु के पास.
यहाँ ही नहीं, तुम हर कहीं हो.
पूजता है धरती को, झुक-झुक जाता है, जवाब में
गहराते पर्वतों में धरती भी तरसती है. रात
है एक समानुभूति, आँखों में आंसुओं की जगह तारे लिए.
यहाँ नहीं,
तुम वहां हो जहाँ मैं खड़ी हूँ, किनारे के लिए पगलाते
सागर को सुनती, चाँद को धरती के लिए
तरसते, व्यथित होते देखती. जब सुबह होती है, सूरज,
उद्दीप्त, पेड़ों को सोने में ढंकता है, मौसमों में से,
कारणों में से, चल कर आते हो तुम मेरे पास.
-- कैरल एन डफ्फी

इस कविता का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़
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