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फॉर वावा, मार्क शगाल For Vava, Marc Chagall |
कमरा घूम कर क़दमों में ढह जाता था,
नीली पड़ती चोट लिए हवा आहत लगती थी,
सूरज आकाश का फाटक धम्म से बंद कर के
भाग जाता था.
मगर जब हम झगड़ते थे,
पेड़ रोते थे और अपने पत्ते उतार फेंकते थे,
दिन क्रूरता से छीन लेता था घंटे हमारे जीवन से,
और बिस्तर पर चादर-तकिये
अपने चीथड़े कर लेते थे.
मगर जब हम झगड़ते थे,
हमारे होंठ नहीं जानते थे कोई चुम्बन, चुम्बन, चुम्बन,
हमारे मन हो जाते थे मुट्ठी में पकड़े नुकीले पत्थर,
बागीचे में उग आती थी हड्डियाँ,
जो मरे हुओं से निकलती थीं.
मगर जब हम झगड़ते थे,
तुम्हारा चेहरा शब्द-मिटाए पन्ने-सा भावशून्य हो जाता था,
मेरे हाथ एक-दूसरे को मलते थे, जलते थे क्रियाओं की तरह,
प्रेम पलट कर भाग जाता था,
और दुबक जाता था हमारे मस्तिष्क में कहीं.
-- कैरल एन डफ्फी

इस कविता का मूल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़
आपसी झगड़े का कितना जीवंत चित्र प्रस्तुत करती है कविता ! बहुत सुंदर अनुवाद और प्रस्तुति ! आभार !
जवाब देंहटाएंवाह !!!!
जवाब देंहटाएंआईने में गर अपना चेहरा देख कुछ सीख जायें तो सब कुछ खुशनुमां हो...है न????
बहुत सुंदर अनुवाद और कविता.... शुक्रिया !!!!