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ऑन द बालकनी, बोरिस कुस्तोदियेव On The Balcony, Boris Kustodiev |
क्या तुम
छुट्टी पर जाने दोगी मुझे
और आनंद उठाने दोगी
पहाड़ों का
जैसे दूसरे उठाते हैं?
पहाड़ हैं जैसे
रेशम का स्पेनी हाथ-पंखा
जिस पर तुम बनी हुई हो
तुम्हारी आँखों के पंछी
झुण्ड बना कर आते हैं
समुद्र के किनारे से
जैसे शब्द
एक नीली नोटबुक के
पन्नों से उड़-उड़ जाते हैं.
क्या तुम मेरी स्मृति को
अपनी सुगंध का घेरा
तोड़ कर बाहर आने दोगी
लेने के लिए
बेज़िल और जंगली थाइम की गंध?
क्या तुम बैठने दोगी मुझे
एक गर्मियों की बालकनी पर
बिना तुम्हारी आवाज़
मुझ तक पहुंचे?
-- निज़ार क़ब्बानी
इस कविता का मूल अरबी से अंग्रेजी में अनुवाद बस्सम के.फ्रंगिये व क्लेमनटीना आर. ब्राउन ने किया है.
इस कविता का हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़