सोमवार, नवंबर 26, 2012

जाड़ों के लिए कुछ पंक्तियाँ

स्नो एंड मिस्ट, जॉन एटकिनसन ग्रिमशॉ
Snow and Mist, John Atkinson Grimshaw
जैसे-जैसे ठण्ड बढ़े
और झरने लगे हवा से कुछ सलेटी-सा
कहना स्वयं से
कि तुम जारी रखोगे
चलना, सुनते रहोगे
उसी धुन को चाहे कहीं भी
पाओ स्वयं को तुम --
अँधेरे के गुम्बद के भीतर
या बर्फ की घाटी में
चाँद की चटक सफ़ेद टकटकी तले.
आज रात जैसे-जैसे ठण्ड बढ़े
बताना स्वयं को
जो जानते हो तुम जो
कुछ और नहीं, है धुन
जो बजाती है तुम्हारी हड्डियाँ
जब तुम चलते हो. और कम-से-कम
एक बार लेट पाओगे तुम
जाड़ों के तारों की मद्धम आंच तले.
और ऐसा हो अगर कि तुम
न बढ़ सको आगे न पीछे ही लौट सको
और पाओ स्वयं को वहाँ
जहाँ अंत में पाओगे तुम
कहना स्वयं से
अपने अंगों में से ठण्ड के उस अंतिम बहाव में
कि तुम जो हो उससे प्रेम करते हो तुम.



--  मार्क स्ट्रैन्ड


  मार्क स्ट्रैन्ड ( Mark Strand )एक अमरीकी कवि, लेखक व अनुवादक हैं. 1990 में वे अमरीका के 'पोएट लौरेएट ' थे. वे कई जाने-माने विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी पढ़ा चुके हैं और आजकल  कोलम्बिया  युनिवेर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं. उन्हें 'पुलित्ज़र प्राइज़ ' सहित कई सम्मान प्राप्त हुए हैं. अब तक उनकी कविताओं, लेखों व अनुवादों के 30 से भी अधिक संकलन प्रकाशित हो चुके हैं. यह कविता उनके संकलन 'न्यू एंड सिलेक्टेड पोएम्ज़' से है.
इस कविता का मूल अंग्रेजी से अनुवाद -- रीनू  तलवाड़