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रॉन माउंटेन, टी सी स्टील Roan Mountain, T C Steele |
मैं हरी होती पहाड़ी की ढलान पर चढ़ती हूँ.
घास और घास में नन्हे-नन्हे फूल,
जैसे बच्चों के बनाये चित्र में होते हैं.
धुंध-भरा आकाश नीला होना शुरू हो गया है.
अन्य पहाड़ियों का दृश्य निःशब्दता में
प्रकट होता है.
जैसे कि कभी कोई कैम्ब्रियन* या सिल्युरियन*युग
था ही नहीं,
बड़ी चट्टानों से कर्कश स्वर में बोलते पत्थर,
औंधे पड़े वितल,
धधकती हुई रातें नहीं
और अन्धकार के बादलों में दिन.
जैसे कि असाध्य ज्वरों में जलते,
बर्फीली सिहरन लिए
मैदान यहाँ तक धक्का लगाते नहीं आये थे.
जैसे कि अपने क्षितिजों के किनारों को कतरते
समुद्र कहीं और ही खौले थे.
समुद्र कहीं और ही खौले थे.
स्थानीय समय के अनुसार साढ़े नौ बजे हैं.
सब कुछ यथास्थान है और विनम्र एक्य में है.
घाटी में छोटी नदी निभा रही है छोटी ही नदी की भूमिका.
एक पथ है एक पथ की भूमिका में हमेशा से सदा तक.
जंगल जंगल के ही भेस में है, अनंत जीवंत,
और उन सब के ऊपर उड़ते पंछी उड़ते ही पंछी हैं.
जहाँ तक दृष्टि जा सकती है वहां तक इस पल का साम्राज्य है.
ऐसा भौतिक पल जिसे ठहरे रहने का आमंत्रण है.
-- वीस्वावा शिम्बोर्स्का
इस कविता का हिंदी में अनुवाद -- रीनू तलवाड़
सुन्दर कविता ...प्रवाह में भी एक ठहराव को देखती और चिन्हित करती है कविता । सुन्दर अनुवाद ।
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